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महाराणा प्रताप और चेतक की हल्दी घाटी की कहानी

Written by hindicharcha

हल्दी घाटी की विशेषता ये है की इस घाटी की मिट्टी का रंग पीलापन लिए हुए है इसलिए हल्दी के समान रंग वाली मिट्टी का होने के कारण इसको हल्दी घाटी कहते है महाराणा प्रताप का एक भयंकर युद्ध अकबर की सेना के साथ हुआ था, लेकिन अकबर ने उस युद्ध में भाग नही लिए था.

अकबर की तरफ से उनका सेनापति मानसिंह ने इस युद्ध में भाग लिया था. अकबर की सेना का नेतृत्व “आसफ खां” ने किया था. वही प्रताप की सेना का नेतृत्व “हकीम खां सुर” ने किया था.

मानसिंह 3 अप्रेल 1576 ई. में अपनी सेना को लेकर अजमेर से मेवाड़ की और रवाना हुआ था और इस सेना का प्रथम पड़ाव मांडल गाँव में और दूसरा पड़ाव मोलेला (राजसमन्द) में हुआ था.

वही प्रताप की सेना का प्रथम पड़ाव लोहासिंह गाँव में हुआ था. प्रताप इस युद्ध में अपने प्रिय घोड़े चेतक पर संवार थे और मानसिंह हाथी (मर्दाना) पर संवार था. हल्दीघाटी के युद्ध में प्रताप की भील सेना का नेतृत्व “पूंजा भील” के हाथो में था. 18 जून 1578 ई. को Maharana Pratap और Akbar की सेना का इतिहास प्रसिद हल्दीघाटी का युद्ध हुआ.

इस युद्ध में मुगल बादशाह अकबर की 20000 सैनिकों वाली सेना के सामने अपने 8000 सैनिक और थोड़े-से संसाधनों के बल पर प्रताप ने यह युद्ध लड़ा था. मानसिंह की सेना के साथ प्रताप के भाई शक्ति सिंह भी थे जो की अकबर की शरण में चला गया था. अब युद्ध का समय हो चूका था मानसिंह अपनी सेना लिए हल्दीघाटी एक तरफ खड़ा था और दूसरी और प्रताप की सेना खड़ी थी.

हल्दीघाटी के उचे होने के कारण मानसिंह अपनी सेना को दूसरी तरफ नही भेज पा रहा था लेकिन हल्दीघाटी के इच में एक सकडा रास्ता था जिसमे से एक बार में कुछ ही सेनिक निकल सकते थे, वहा से मानसिंह ने अपनी सेना को भेजना शुरु किया.

प्रताप ने इसी बात का फायदा उठा कर जैसे ही मानसिंह की सेना के सिपाहियों ने हल्दीघाटी में प्रवेश करना चालू किया उन्होंने उन पर तीर भालो से वार कर दिया देखते ही देखते मुग़ल सेना के सेनिको की बहुत सारी लाशे बिछ गयी यह देख मानसिंह ने अपनी सेना को वापस हटने को बोला. और हल्दीघाटी में प्रवेश करने का दूसरा रास्ता खोजने लगे.

यह दूसरा रास्ता शक्ति सिंह को पता था शक्तिसिंह ने मुग़ल सेना को साथ लिया और बनास नदी के किनारे होते हुए एक बड़े मैदान में पहुच गये जहा यह युद्ध लड़ा गया, इस युद्ध को लड़ने के बाद उस मैदान का नाम “रक्ततलाई” रख दिया गया था, क्योंकी वहा पर सेनिको का इतना खून बहा था की पूरा मैदान खून से भर गया था.

इस युद्ध में महाराणा प्रताप बुरी तरह से घायल हो गये थे, यह देखते ही उनके मित्र “झाला वीदा” ने उनकी जगह ले ली और प्रताप को इस युद्ध से बाहर जाने के लिए बोला उन्हें पता था की अगर प्रताप जिंदा रहे तो वे मेवाड़ को वापस जीत लेंगे इसलिए महाराणा प्रताप वहा से दूर “कोल्यारी” गाँव में चले गये थे.

इस युद्ध में झाला वीदा वीरगति को प्राप्त हो गये थे, वहीं ग्वालियर नरेश ‘राजा रामशाह तोमर’ भी अपने तीन पुत्रों ‘कुँवर शालीवाहन’, ‘कुँवर भवानी सिंह ‘कुँवर प्रताप सिंह’ और पौत्र बलभद्र सिंह एवं सैंकडों वीर तोमर राजपूत योद्धाओं समेत चिरनिद्रा में सो गया.

कोल्यारी गाँव पहुचने से पहले उनके पीछे अकबर की सेना के कुछ सिपाही उनका पीछा कर रहे थे, प्रताप इस हालत में नही थे की वे उन सिपाहियों से लड़ पाए.

Maharana Pratap  & Chetak life History in Hindi

इसी बीच एक 27 फिट की खाई आ गयी जिसको पार करना किसी भी घोड़े के बस में नही था लेकिन प्रताप का घोडा इतना सवेंदनशील था की उसने प्रताप की हालत को भाप लिया और हवा की रफ़्तार से छलांग लगा दी और खाई के दुरी तरफ पहुच गया. लेकिन युद्ध में चेतक भी बहुत बुरी तरह घायल हो गया था

इसलिए खाई से कूदने के कुछ दूर चलने पर ही उसकी मृत्यु हो गयी , उस समय पहली बार महाराणा प्रताप रोए थे. क्योंकि चेतक ही था जिसकी वजह से प्रताप ने कई युद्ध जीते थे और आज उनकी जान भी बचाई थी. चेतक को आज भी पुरे भारत में एक वीर योधा में रूप में देखा जाता है.

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