अध्यात्म

पुष्प वाटिका में श्री राम और माता जानकी जी का प्रथम मिलन होता है

Written by hindicharcha

नमस्कार, आज की हिंदी चर्चा में हम जानेंगे की पुष्प वाटिका में श्री राम और माता जानकी जी का प्रथम मिलन कैसे होता है

*सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए॥
समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई॥

भावार्थ:-सब शौचक्रिया करके वे जाकर नहाए। फिर (संध्या-अग्निहोत्रादि) नित्यकर्म समाप्त करके उन्होंने मुनि को मस्तक नवाया। (पूजा का) समय जानकर, गुरु की आज्ञा पाकर दोनों भाई फूल लेने चले॥

जो पूर्वानुराग की अद्भुत और सौंदर्यमयी अभिव्यक्ति है। इधर गुरू की आज्ञा से श्री राम पुष्प वाटिका आते हैं और उधर माँ की अनुमति से सीता जी गिरिजा पूजन के निमित्त पुष्प वाटिका आतीं हैं।

सीता जी का संग छोड़ एक सखी वाटिका में फूलों का सौंदर्य निरख रही है, सहसा उसकी दृष्टि श्री राम और लक्ष्मण पर जा पड़ती है। वह चकित विस्मित व विस्फारित नेत्रों से श्री राम और लक्ष्मण का रूप-सौंदर्य-अवगाहन करती है, रोम-रोम पुलकित हो जाता है। उसकी अद्भुत दशा देख कर सखियाँ भी चकित हो जाती हैं।

सीता जी के हृदय की उत्कंठा भी सखियों से छिपी नहीं है। माँ जानकी जी को नारदमुनि की बातों का स्मरण हो आता है और हृदय में पुरातन प्रीति की स्मृति जागृत हो जाती है।

सीता जी के चकित नयन और शिशुमृग सृदश मिश्रित हाव-भाव में अति ही शालीनता सौंदर्य का निर्वाह हुआ है। मुग्धा मृगी के नयन की भय मिश्रित उत्कंठा सम मर्मभरी भावाव्यक्ति है।

सीता जी के कंगन किंकणी और नुपुरों की मधुर ध्वनि मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम के चित्त पर कामदेव की विजय घोषणा का दम्भ भर रही है। समग्र विश्व को अपने रूप से आकृष्ट और मोहित कर लेने वाले श्री राम सीता जी के अलौकिक रूप-लावण्यमय को अपसब ठगे से निहारते रह जाते हैं।

सीता जी का अनुपम रूप-लावण्य और श्री राम जी का अभूतपूर्व प्रेम असीम मर्यादा के आवरण में मुखर है। सीता जी का सौंदर्य मानों स्वयं सौंदर्य की दीपशिखा बन कर सौंदर्य-भवन को प्रकाशित कर रहा है। श्री राम स्वयं सीता जी का सौंदर्य-वर्णन करने में अपनी असमर्थता का बोध कराते हैं।

पुष्प वाटिका में श्री राम और सीता जी का मिलन वस्तुतः शील और सौंदर्य का अनुपम मिलन है। श्री राम की मुख शोभा शब्दों से नहीं बखानी जा सकती और सीता जी का सौंदर्य भी शब्दों की सीमा में नहीं समाता है। औचित्य और मर्यादा का उल्लंघन महाकवि तुलसीदास जी के काव्य का भी सौंदर्य नही है।

अति पावन-हृदय अनुज लक्ष्मण से श्री राम सीता जी की शोभा का अनुभव बोध प्रकट करने का प्रयास करते हैं। वह रघुवंशमणि हैं, उनके स्वप्न में भी अब तक किसी पर-नारी का प्रवेश नहीं हुआ है। आज उनकी दशा अद्भुत बन गई है-

“रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ।मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ।।
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरि। जेहि सपनेहुँ परनारि न हेरि।।

यही भाव दिव्य-प्रेम की पवित्रता और मर्यादा का शील-निरूपण कर रहा है। वस्तुतः पुष्प वाटिका का वर्णन सम्पूर्ण श्री रामचरित मानस में वर्णित भारतीय संस्कृति में निहित शील और सौंदर्य की अन्यतम अभिव्यक्ति है।

पुष्प वाटिका का सौंदर्य अलौकिक दिव्य-प्रेम व निष्कलुष सौंदर्य का शील सम्पन्न संगम स्थल है। इसकी प्रत्येक शब्द-ध्वनि में माधुर्य भाव गूँजते हैं। यह कवि और भक्त हृदय की निर्विकार सुन्दरतम काव्य-सर्जना है।।।

तदोपरांत जगतजननी माता सीता माता गौरी की पूजन अर्चन करती हैं!

*जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी॥
जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥

भावार्थ:-हे श्रेष्ठ पर्वतों के राजा हिमाचल की पुत्री पार्वती! आपकी जय हो, जय हो, हे महादेवजी के मुख रूपी चन्द्रमा की (ओर टकटकी लगाकर देखने वाली) चकोरी! आपकी जय हो, हे हाथी के मुख वाले गणेशजी और छह मुख वाले स्वामिकार्तिकजी की माता! हे जगज्जननी! हे बिजली की सी कान्तियुक्त शरीर वाली! आपकी जय हो! ॥

*नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥
भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥

भावार्थ:-आपका न आदि है, न मध्य है और न अंत है। आपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानते। आप संसार को उत्पन्न, पालन और नाश करने वाली हैं। विश्व को मोहित करने वाली और स्वतंत्र रूप से विहार करने वाली हैं॥

*पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।
महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष॥

भावार्थ:-पति को इष्टदेव मानने वाली श्रेष्ठ नारियों में हे माता! आपकी प्रथम गणना है। आपकी अपार महिमा को हजारों सरस्वती और शेषजी भी नहीं कह सकते॥

*सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी॥
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥

भावार्थ:-हे (भक्तों को मुँहमाँगा) वर देने वाली! हे त्रिपुर के शत्रु शिवजी की प्रिय पत्नी! आपकी सेवा करने से चारों फल सुलभ हो जाते हैं। हे देवी! आपके चरण कमलों की पूजा करके देवता, मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते हैं॥

*मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें॥
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥

भावार्थ:-मेरे मनोरथ को आप भलीभाँति जानती हैं, क्योंकि आप सदा सबके हृदय रूपी नगरी में निवास करती हैं। इसी कारण मैंने उसको प्रकट नहीं किया। ऐसा कहकर जानकीजी ने उनके चरण पकड़ लिए॥

*बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी॥
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ

भावार्थ:-गिरिजाजी सीताजी के विनय और प्रेम के वश में हो गईं। उन (के गले) की माला खिसक पड़ी और मूर्ति मुस्कुराई। सीताजी ने आदरपूर्वक उस प्रसाद (माला) को सिर पर धारण किया। गौरीजी का हृदय हर्ष से भर गया और वे बोलीं-॥

*सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥
नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥

भावार्थ:-हे सीता! हमारी सच्ची आसीस सुनो, तुम्हारी मनःकामना पूरी होगी। नारदजी का वचन सदा पवित्र (संशय, भ्रम आदि दोषों से रहित) और सत्य है। जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही वर तुमको मिलेगा॥

*मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥

भावार्थ:-जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से ही सुंदर साँवला वर (श्री रामचन्द्रजी) तुमको मिलेगा। वह दया का खजाना और सुजान (सर्वज्ञ) है, तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है। इस प्रकार श्री गौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सब सखियाँ हृदय में हर्षित हुईं। तुलसीदासजी कहते हैं- भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चलीं॥

*जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥

भावार्थ:-गौरीजी को अनुकूल जानकर सीताजी के हृदय को जो हर्ष हुआ, वह कहा नहीं जा सकता। सुंदर मंगलों के मूल उनके बाएँ अंग फड़कने लगे॥

जय जय श्री राम।।

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