अध्यात्म

यज्ञ करने के क्या फायदे और कितने प्रकार के होते है

Written by hindicharcha

हिंदी चर्चा में आज हम आपको बताएँगे यज्ञ का धार्मिक महत्व, इसके पीछे पर्यावरण और विज्ञान संबंधी कई कारण छिपे हैं। प्राचीनकाल में राजा कई यज्ञ करवाया करते थे, बारिश के लिए, राज्यवृदिध के लिए और विश्वविजयी कामना से। कई कथाओं में पुत्रप्राप्ति के लिए भी यज्ञ का विधान बताया गया है। होली जैसे त्योहार की शुरुआत भी यज्ञ से ही हुई थी।

लौकिक स्तर पर रोज किए जाने वाले अग्निहोत्र को नित्य यज्ञ और मौसम के साथ या किसी विशेष उद्देश्य से किया जाने वाला यज्ञ नैमित्तिक यज्ञ कहा गया है। इसमें नित्य यज्ञ पंच महायज्ञ के रूप में प्रचलित हुआ जिनमें देव, ऋषि, भूत, पितृ और मनुष्य के लिए अन्न-द्रव्य त्याग का विधान था। इसमें देवयज्ञ देवों के प्रति कृतज्ञता, ऋषि-यज्ञ ज्ञान की परंपरा, पितृ-यज्ञ वंश परंपरा, भूत-यज्ञ सभी जीव-जंतुओं और मनुष्य यज्ञ मानव मात्र के प्रति कृतज्ञता और सद्भावना व्यक्त करते हैं। मनुष्य का आत्मिक और नैतिक बल बढ़ाते हैं। वेदों के अनुसार यज्ञ से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। देवत्व से परिपूर्ण ऐसी जीवनशैली को स्वर्ग कहा गया है। सामुदायिक स्तर पर ऋतुओं में फसल कटने के समय अनुष्ठान होते। यह सामाजिक स्तर पर फसलों के रूप में प्रकृति से मिले अवदानों के बांटने और उसके लिए ईश्वर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का आयोजन होता था।

शरद ऋतु की समाप्ति पर आग्रयणोष्टि, वसंत की समाप्ति पर चैत्री, श्रावण में श्रावणी, आश्विन में श्राद्ध और वर्षा ऋतु में चातुर्मास्य याग होते थे। ये पाक यज्ञ कहलाते थे। इसके अतिरिक्त प्रति अमावस्या व पूर्णिमा को दर्श पौर्णमास इष्टि का विधान है। इन यज्ञों के अतिरिक्त सोमयज्ञ संस्था थी। लंबे समय तक चलने वाले प्रसिद्ध राजसूय, विश्वजित्, यज्ञों का राजा कहा जाने वाला अश्वमेध यज्ञ इसके अंतर्गत आते थे। इन यज्ञों के विशिष्ट उद्देश्य और वृह्द यज्ञ विधान होते थे। इतने विशाल कर्मकांड के बावजूद यज्ञ की भावना अर्पण करने में होती थी। यजमान धन-दृव्य, सोमरस, पशु, खीर आदि जो भी आहूति देता उसमें वह स्वयं का आरोपण करता। इस प्रकार ये पदार्थ उसके आत्मोत्सर्ग के माध्यम बनते।

वेदानुसार यज्ञ 5 प्रकार के होते हैं-

यज्ञ का अर्थ है शुभ कर्म, श्रेष्ठ कर्म, सत्कर्म, वेदसम्मत कर्म। सकारात्मक भाव से ईश्वर-प्रकृति तत्वों से किए गए आह्वापन से जीवन की प्रत्येक इच्छा पूरी होती है।

(1) ब्रह्म यज्ञ : जड़ और प्राणी जगत से बढ़कर है मनुष्य। मनुष्य से बढ़कर हैं पितर अर्थात माता-पिता और आचार्य। पितरों से बढ़कर हैं देव अर्थात प्रकृति की 5 शक्तियांं और देव से बढ़कर हैं ईश्वर और हमारे ऋषिगण। ईश्वर अर्थात ब्रह्म। यह ब्रह्म यज्ञ सम्पन्न होता है नित्य संध्या वंदन, स्वाध्याय तथा वेदपाठ करने से। इसके करने से ऋषियों का ऋण अर्थात ‘ऋषि ऋण’ चुकता होता है।

(2) देव यज्ञ : देव यज्ञ जो सत्संग तथा अग्निहोत्र कर्म से सम्पन्न होता है। इसके लिए वेदी में अग्रि जलाकर होम किया जाता है, यही अग्रिहोत्र यज्ञ है। यह भी संधिकाल में गायत्री छंद के साथ किया जाता है।

(3) पितृ यज्ञ : सत्य और श्रद्धा से किए गए कर्म श्राद्ध और जिस कर्म से माता-पिता व आचार्य तृप्त हों वह तर्पण है। वेदानुसार यह श्राद्ध-तर्पण हमारे पूर्वजों, माता-पिता और आचार्य के प्रति सम्मान का भाव है।

(4) वैश्वदेव यज्ञ : इसे भूत यज्ञ भी कहते हैं। पंच महाभूत से ही मानव शरीर है। सभी प्राणियों तथा वृक्षों के प्रति करुणा और कर्तव्य समझना उन्हें अन्न-जल देना ही भूत यज्ञ या वैश्वदेव यज्ञ कहलाता है।

(5) अतिथि यज्ञ : अतिथि से अर्थ मेहमानों की सेवा करना, उन्हें अन्न-जल देना। अपंग, महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक और धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करना ही अतिथि यज्ञ है। इससे संन्यास आश्रम पुष्ट होता है। यही पुण्य है। यही सामाजिक कर्तव्य है।

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